जो दृश्यमान है  वह  एक  ...

जो दृश्यमान है  वह  एक  छलावा है ।

वेदांत दर्शन कहता है जो कुछ भी प्रत्यक्ष है दृश्यमान है, वह नित्य नहीं है, यथार्थ नहीं है, अपितु सतत् परिवर्तनशील है, अवास्तविक है। फिर सत्य क्या है? उसे प्राप्त कैसे किया जाय? इस दृश्य जगत के कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है।

प्रकाश को ही ले व उसका विश्लेषण करें तो ज्ञात होता है कि उसमें विद्युत चुम्बकीय लहरें मात्र हैं। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील की तीव्र गति से चलने वाले प्रकाश अणुओं को सात रंग की किरणों में विभक्त किया जा सकता है। इन कारणों को न्यूनाधिकता ही रंग-भेद का कारण है।

सामान्यतया कहा यह जाता है कि संसार में एक वस्तु एक रंग की है, दूसरी अन्य रंग की। परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। किसी भी वस्तु का अपना निज का कोई रंग नहीं है। जिस विशेष रंग की किरणों को वह पदार्थ अवशोषित न कर उसे वापस कर देता है, वे जब आँखों के ज्ञान तन्तु से टकराती हैं, तो वह पदार्थ उसी रंग का मालूम पड़ता है।

इसी तरह दिखाई देने वाले सभी पेड़ पौधे बिना किसी रंग के हैं। पर वे प्रकाश की हरी किरणें अवशोषित न कर पाने के कारण हरे रंग के प्रतीत होते हैं। हम इसी प्रतीति को सनातन सत्य मानते रहते हैं। यदि कोई इस मान्यता के अलावा और कुछ कहे तो उसकी बात पर हँसते हैं, और उस भ्रान्त, दुराग्रही जैसी संज्ञा देते हैं। जबकि सच्चाई यही है कि प्रकृति की जादूगरी, कलाबाजी हमें छलावा दे रही है। पेड़ पौधे तो एक उदाहरण हैं। अन्य सभी रंगों के बारे में भी हम भ्रम जाल में ही पड़े हैं।

काला रंग हमको सबसे गहरा लगता है और सफेद रंग को रंग ही नहीं मानते, जबकि बात इससे सर्वथा उलटी है किसी भी रंग का न दिखना काला रंग है और सातों रंग का मिश्रण सफेद रंग। घनघोर छाया अँधेरा कुछ भी नहीं है। इसीलिए वैशेषिक दर्शन अँधेरे को कोई पदार्थ नहीं मानता जबकि अन्य चिन्तक उसे एक तत्व विशेष की मान्यता देने में खूब जोर लगाते हैं। होता यह है कि कालिमा अपने में सभी प्रकाश किरणों को शोषित कर लेती हैं और हम अँधेरे में ठोकर खाते रहते हैं।

जबकि सफेद रंग किसी भी किरण को नहीं सोखता है। उससे टकराकर सभी प्रकाश तरंगें वापस आती हैं और आँखों से टकराने पर सातों रंगों का समूह हमें सफेद लगता है। कैसी विचित्रता है? एक प्रकार का इन्द्रजाल है, जिसे स्वीकार करने का मन नहीं होता अस्वीकार भी नहीं कर सकते। इन वैज्ञानिक सिद्धियों को अमान्य कैसे ठहराया जाय।

एक सवाल और है कि प्रकाश किरणों में रंग कहाँ से आता है।? इसका उत्तर और भी विचित्र है। इन प्रकाश तरंगों की लम्बाई में पाया जाने वाला अन्तर (वेव लेंग्थ) ही रंगों के रूप में दिखता है। सही माने तो रंग नाम की चीज इस दुनिया में है ही नहीं।

विद्युत चुम्बकीय तरंगें ही प्रकाश है। इनकी तरंग दैर्ध्य की भिन्नता का अनुभव मस्तिष्क भिन्न-भिन्न तरह से करता है। अनुभूति की यह भिन्नता ही भिन्न रंगों के रूप में प्रकट होती है। सातों रंग एवं इनके परस्पर मिलने से बनने वाले विविध रंगों का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रकाश तरंगों की तरंग दैर्ध्य का विवेचन मस्तिष्कीय अनुभूति से ही कर सकना सम्भव है। रंगों की अपनी यथार्थ सत्ता कुछ भी नहीं।

आँखों का यह धोखा मस्तिष्क का बहकना, रंगों के संसार में प्रथम पग रखते ही स्पष्ट हो जाता है। अन्य विषयों में भी हम किस तरह से भ्रमित हैं, कोई ठिकाना नहीं। हमारे जीवन का लक्ष्य, प्रयोजन और स्वरूप क्या है? यह तो पूरी तरह से भूल चूके हैं, और जानने की चिन्ता भी नहीं। अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण जड़ जगत में अपनी मान्यता को भिन्न-भिन्न तरह से फैला कर प्रिय-अप्रिय के रूप में मान बैठे हैं। आत्मज्ञान की दिव्य दृष्टि यदि हम पा सके तो जान सकेंगे की किस अज्ञान के दल दल में जा फँसे हैं। इससे उबरने बिना सत्य का साक्षात्कार कर सकना असम्भवप्राय है।

मरने के बाद हमारा क्या होता है

जीव् अमर है | उसकी मृत्यु का प्रश्न ही नहीं उठता |अविनासी आत्मा सदैव से है और सदा तक रहेगी | शरीर की मृत्यु को हम लोग अपनी मृत्यु मानते है , बस इस लिए डरते हैंऔर भयभीत होते हैं | यदि अंत;करण को विश्वास हो जाय कि आज की तरह हमें आगे भी जीवीत रहना है , तो डरने की बात नहीं रह जाती है |
मृत्यु का भय अन्य सब भयों से अधिक बलवान होता है , आदमी मौत के डर से कांपता है , कारण परलोक संबंधी अज्ञान है | परलोक विज्ञान के सम्बन्ध मे हाथों- हाथ प्रमाण देकर साबित करना कठिन है | परलोक विद्द्याविशारद ' ओलिवर-लाज' को यही कहना पड़ा कि ''इस आत्म-विज्ञान को हर समय प्रत्यक्ष कर दिखाना मुस्किल है ''|
जीवन और शरीर एक वस्तु नहीं है | जैसे कपड़ों को हम यथा समय बदलते रहते हैं, उसी प्रकार जीव को भी शरीर बदलने पड़ते हैं | सूक्ष्मशरीर मे प्रस्फुटित होने के कारण पुराने शरीर से कुछ विशेष ममता नहीं रह जाती | 
जब तक मृतशरीर की अंतेष्टि क्रिया होती है जीव शरीर बार-बारउसके आस-पास मडराता है, परंतु जला देने पर वह उसी समय दूसरीओर मन लौटा लेता है|
अचानक और उग्रवेदना के साथ मृत्यु होने के कारण स्थूल शरीर के बहुत से परमाणु सूक्ष्म शरीर के साथ मिल जाते हैं , इसलिए मृत्यु के उपरांत उनका शरीर कुछ जीवित,कुछ मृतक, कुछ स्थूल , कुछ सूक्ष्म सा रहता है | ऐसी आत्माएं प्रेत रूप से प्रत्यक्ष- सी दिखाई देती हैं और अदृश्य भी हो जाती हैं | अपघात से मरे जीव सताधारी प्रेत के रूप मे विद्दमान रहते हैं और उनकी विषम स्थिति मानसिक नीद भी नहीं लेने देती है | वे बदला लेने की इक्षा से या इन्द्रिय वासनावों को तृप्त करने के लिए किसी पीपल के पुराने पेड़ की गुफा , खँडहर या जलाशय के आस --पास पड़े रहते हैंऔर जब अवसर देखते हैं ,अपना बदला लेने की इक्षा से प्रकट हो जाते हैं.....