मणिर्लुण्ठति पादाग्रे ......

मणिर्लुण्ठति पादाग्रे काच: शिरसि धार्यते।
क्रयविक्रयवेलायां काच: काचो मणिर्मणि:।।

भावार्थ : मणि पैरों में पड़ी हो और कांच सिर पर धारण किया गया हो, परन्तु क्रय-विक्रय करते समय अर्थात मोल-भाव करते समय मणि मणि ही रहती है और कांच कांच ही रहता है ।।

भाव यह है कि समय अथवा भाग्य के कारण विद्वान व्यक्ति का भले ही सम्मान न हो, पर जब मूल्यांकन का समय आता है तो विद्वान की विद्वता को कोई चुनौती नहीं दे सकता । योग्य व्यक्ति की अलग ही पहचान होती है और अयोग्य व्यक्ति की जग हंसाई ही होती है ।।

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